कहो ना

कहो ना,

कहो ना कि सुबह जब आपकी पलकें,

आँखों से जुदा होती हैं,

यार के दीदार की कशिश,

वैसी ही वहां होती है,

जैसी की यहाँ होती है।

 

कहोगी ऐसा तो मैं भी कहूंगा,

कि सुबह तो यहाँ आफ़त होती है।

 

सहर ही उठकर,

सूरज को देखकर,

होती है ये तकरार,

कि देख आये तुम,

उन्हें देख आये तुम!

 

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उनकी गली में निकल कर,

उनका घर ढूंढा होगा,

पहली मंज़िल के कमरे तक,

तू ऊंचा उठा होगा।

खिड़की से झाँक कर,

पर्दों से बचकर,

किसी कोने में बैठ कर,

बता दे ऐ ज़ालिम,

कैसा लगा देख कर?

 

उनके चेहरे का नूर,

वो परी, वो हूर,

उनकी बेखबर नींद,

उनकी टूटती अंगड़ाई,

वो सुकून उनकी साँसों में,

वो तकिया उनकी बाहों में,

वो ज़ुल्फें बिखरी हुई,

वो सिलवटें मुड़ती हुई

इक पैमाना भी पड़ा होगा,

उनके होठों ने छुआ होगा।

ये सब तो तूने देख लिया,

फिर क्यों ना अकेला छोड़ दिया?

 

इतने से मन भरा नहीं होगा,

शरीफ़ तो तू रहा नहीं होगा।

तूने किरणों के हाथ बढाए होंगे,

रुख़सार हौले से सहलाये होंगे,

इतने पे न किरणें रुकी होंगी,

चेहरे से आगे बढ़ी होंगी,

दो उलझी हुई ज़ुल्फ़ों के,

दरमियाँ जो गाठें पड़ी होंगी,

उन्हें सुलझाने की कोशिश,

खुद उनसे उलझ कर की होगी,

वो पैमाना भी तूने छुआ होगा,

थोड़ा पानी सोख लिया होगा।

इतने पर भी गर मान जाता,

तो मैं दिल को समझा पाता,

पर तू लौट कर जब आया होगा,

अपनी तपिश वहाँ छोड़ आया होगा,

तूने किरणें जब मोड़ी होंगी,

उनकी नींद भी तोड़ी होगी,

उनकी पलकें खोलकर,

उन आँखों में समाया होगा,

और तब कहीं जाकर,

मुझे जलाने यहाँ आया होगा।

और तब कहीं जाकर,

मुझे जलाने यहाँ आया होगा।

 

कहो ना,

कहोगी ऐसा तो मैं भी कहूंगा,

कि सुबह तो यहाँ आफ़त होती है।

 

Written on August 25, 2020